धर्म संसद
की राजनीति
धर्म संसद और देश की
संसद में कोई फर्क नहीं लगता है। दोनों ही संसदों में खुद को नेक और बड़ा साबित करने
की होड़ सी मची रहती है। हालांकि इनका काम लोगों के हित में फैसले करना ही होता है।
पर लोगों के हित को किनारे करते हुए यह खुद के हितों को साधने में लगे हुए हैं। मैं
यह नहीं कहती कि साईं को भगवान घोषित कर देना चाहिए पर यह कहां तक जायज़ है कि दूसरे
पक्ष को सुने बिना ही फैसला सुना दिया जाए। गौरतलब है कि धर्म संसद में साईं को भगवान,
संत और गुरू नहीं माना गया। काशी विद्वत परिषद के संरक्षक शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद
सरस्वती ने परिषद के निर्णय पर अंतिम मुहर लगाई। उन्होंने कहा कि अब मंदिरों में साईं
का पूजन नहीं होगा। भविष्य में साईं के नाम से कोई मन्दिर नहीं बनाया जाएगा। परिषद
का मानना है कि दो दिन के मंथन के बाद साईं किसी भी कसौटी पर भगवान सिद्ध नहीं हुए
हैं। लोग साईं को भगवान का अवतार मानते हैं जबकि अवतार उसे माना जाता है जो अपनी इच्छा
के अनुसार शरीर को धारण करता है। भारत जैसे धार्मिक देश में तो शायद यह पूछना भी बेईमानी
ही होगी कि हम किसे और क्यों भगवान मानने लग जाते हैं। और उसके प्रति आस्था और विश्वास
का स्तर सारी हदों के आगे निकल जाता है।
खैर लगता है कि यह
दौर ही कुछ ऐसा है, जो सत्ता में होता है खुद को शहंशाह मान लेता है। धर्म की राजनीति
हमारे देश में होना कोई नई बात नहीं है। पर लोगों की धार्मिक भावनाओं से यह नेता और
साधु-संत कब तक खेलते रहेगें। कब हम यह समझेंगे कि हम एक ऐसे राष्ट्र के नागरिक हैं
जो हमें किसी भी धर्म को मानने की पूरी आजादी देता है। आर.एस.एस के प्रमुख मोहन भागवत
का अटपटा बयान आया जिसमें उन्होंने कहा कि भारत में रहने वाले सभी नागरिक हिन्दू हैं।
उनके इस बयान पर सियासत भी गरमाई। बड़े-बड़े नेताओं से लेकर पत्रकारों ने उनके इस बयान
की कड़े शब्दों में निन्दा भी करी। प्राइम टाइम में यह मुद्दा चर्चा का विषय भी बना।
और शायद इससे ज्यादा कोई कर भी क्या सकता था। आखिरकार हम ऐसे ही देश के नागरिक तो हैं
जहां हर कोई अपने विचारों को खुलकर रख सकता है। और अब इस बात को लगता है कि देश के
कुछ लोगों ने ज्यादा ही महत्वता दे दी है। इन सब बातों को देख कर एक बात पर ज्यादा
विश्वास होने लगा है- अविश्वसनीय भारत!!