Tuesday 26 August 2014

धर्म संसद की राजनीति
धर्म संसद और देश की संसद में कोई फर्क नहीं लगता है। दोनों ही संसदों में खुद को नेक और बड़ा साबित करने की होड़ सी मची रहती है। हालांकि इनका काम लोगों के हित में फैसले करना ही होता है। पर लोगों के हित को किनारे करते हुए यह खुद के हितों को साधने में लगे हुए हैं। मैं यह नहीं कहती कि साईं को भगवान घोषित कर देना चाहिए पर यह कहां तक जायज़ है कि दूसरे पक्ष को सुने बिना ही फैसला सुना दिया जाए। गौरतलब है कि धर्म संसद में साईं को भगवान, संत और गुरू नहीं माना गया। काशी विद्वत परिषद के संरक्षक शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने परिषद के निर्णय पर अंतिम मुहर लगाई। उन्होंने कहा कि अब मंदिरों में साईं का पूजन नहीं होगा। भविष्य में साईं के नाम से कोई मन्दिर नहीं बनाया जाएगा। परिषद का मानना है कि दो दिन के मंथन के बाद साईं किसी भी कसौटी पर भगवान सिद्ध नहीं हुए हैं। लोग साईं को भगवान का अवतार मानते हैं जबकि अवतार उसे माना जाता है जो अपनी इच्छा के अनुसार शरीर को धारण करता है। भारत जैसे धार्मिक देश में तो शायद यह पूछना भी बेईमानी ही होगी कि हम किसे और क्यों भगवान मानने लग जाते हैं। और उसके प्रति आस्था और विश्वास का स्तर सारी हदों के आगे निकल जाता है।
खैर लगता है कि यह दौर ही कुछ ऐसा है, जो सत्ता में होता है खुद को शहंशाह मान लेता है। धर्म की राजनीति हमारे देश में होना कोई नई बात नहीं है। पर लोगों की धार्मिक भावनाओं से यह नेता और साधु-संत कब तक खेलते रहेगें। कब हम यह समझेंगे कि हम एक ऐसे राष्ट्र के नागरिक हैं जो हमें किसी भी धर्म को मानने की पूरी आजादी देता है। आर.एस.एस के प्रमुख मोहन भागवत का अटपटा बयान आया जिसमें उन्होंने कहा कि भारत में रहने वाले सभी नागरिक हिन्दू हैं। उनके इस बयान पर सियासत भी गरमाई। बड़े-बड़े नेताओं से लेकर पत्रकारों ने उनके इस बयान की कड़े शब्दों में निन्दा भी करी। प्राइम टाइम में यह मुद्दा चर्चा का विषय भी बना। और शायद इससे ज्यादा कोई कर भी क्या सकता था। आखिरकार हम ऐसे ही देश के नागरिक तो हैं जहां हर कोई अपने विचारों को खुलकर रख सकता है। और अब इस बात को लगता है कि देश के कुछ लोगों ने ज्यादा ही महत्वता दे दी है। इन सब बातों को देख कर एक बात पर ज्यादा विश्वास होने लगा है- अविश्वसनीय भारत!!

                                                              

Wednesday 6 August 2014


गुमनाम सितारे


आज सुबह ऑफिस में आते ही पता चला कि हम सब के फेवरेट चाचा चौधरी को बनाने वाले प्राण शर्मा इस दुनिया में नहीं रहे। कैंसर के चलते उनका निधन हो गया। फेसबुक और ट्वीटर पर लोगों का श्रद्धांजलि देने का सिलसिला शुरू हो गया। ऐसा लगता है कि यह भी लोगों के शौक में ही शुमार हो गया है। बस इधर कोई मरा नहीं और उधर श्रद्धांजलि देना शुरू। मैं इसके खिलाफ नहीं हूं, यह अच्छा भी है कम से कम इसके माध्यम से आप अपनी संवेदनाओं को व्यक्त कर सकते हैं। पर आज से पहले हममें से कितने लोगों को पता था कि प्राण जी कौन हैं, कहां हैं और हैं भी या नहीं? इसे विडम्बना ही कहेंगें कि इतनी काबिल, ना कि मशहूर हस्ती का हमारे बीच होने का हमें पता ही नहीं था। ऐसा सिर्फ हमारे भारत में ही हो सकता है। किसी कलाकार के मरने के बाद उसके बारे में पता चलना यह कोई नई बात नहीं है। क्यों हमारा समाज और हम एक कलाकार को अक्सर भूल जाते हैं। उसकी कला से हमें बहुत प्यार हो जाता है पर कलाकार को हम जानते ही नहीं। क्यों हम इतने अंवेदनशील हो गए हैं। क्या इसके लिए सिर्फ हम जिम्मेदार है या फिर यह सरकार की भी कहीं ना कहीं जिम्मेदारी होती है कि कम से कम भारत के नगीनों को उनके काम के अनुसार सम्मान दिया जाए। प्राण जी के मरने पर देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी श्रद्धांजलि दी। अब आप इस बात का अनुमान लगा सकते हैं कि प्राण जी का जाना देश के लिए कितनी बड़ी क्षति थी या वह देश के लिए कितना मायने रखते थे। लेकिन अगर सच में वह हमारे लिए इतने ही अज़ीज होते तो क्या हमें उनके जिन्दा होने का कभी एहसास ही नहीं होता। यह सिर्फ प्राण जी की बात नहीं है बल्कि बॉलीवुड ने भी इसे कई बार करीब से महसूस किया है।  प्राण जी को मेरा सलाम जिन्होंने बचपन में मुझे चाचा चौधरी के ज़रिये ना जाने कितने बाद हंसाया है। आज एक बार फिर याद आया कि उस वक्त अखबार वाले से मंगा-मंगा कर ना जाने कितनी कॉमिक्स इक्ट्ठी करी थीं। पता नहीं आज वो सब कहां होंगी।

Thursday 16 January 2014

                         टोपी से कुर्सी तक

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की टोपी का नशा हर पार्टी के सिर चढ़ कर बोलने लगा है। टोपी का नशा कुछ इस कदर है मानो हर पार्टी इसे अपनी जीत की ओर जाने वाली सीढ़ी समझ रही है। टोपी की शुरूआत तो एक अरसे पहले महात्मा गाँधी ने करी थी इसके बाद इस टोपी को पं जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, मोरारजी देसाई से लेकर तमाम बड़े नेताओं ने पहना। लेकिन वक्त के साथ साथ टोपी कहीं गायब होती चली गयी। वक्त बदला, नेता बदले, लोग बदले और बदल गया वह दौर जब टोपी नेताओं की शान हुआ करती थी। यह दौर था आजादी के करीब 50-60 साल के बाद का दौर, इस दौर में नेता टोपी को भूल चुके थे। कुछ नेता तो इस टोपी को धर्म से भी जोड़कर देखने लगे थे, सादगी और भाईचारे से हटकर इस टोपी को जाति और मजहब से जोड़ दिया गया। पर कभी ना थमने वाले वक्त ने एक बार फिर से करवट ली और शुरू हो गया अन्ना हजारे का दौर। तमाम लोग अन्ना में गाँधी की छवि देखने लगे, ये वह दौर था जब देश ने दूसरी दफा आजादी की जंग लड़ी। पूरा देश ऐसे एकजुट हो गया जैसे आजादी के वक्त हुआ था ये द़श्य युवा पीढ़ी ने इससे पहले कभी नहीं देखा था। ये किसी सपने से कम नहीं था कि एक साधारण से दिखने वाले व्यक्ति ने पूरे देश में बदलाव की एक ऐसी चिंगारी को जन्म दिया था जो शायद बुझने वाली नहीं है। उस वक्त अन्ना ने गाँधी टोपी पहनी थी, जिस पर लिखा था मैं अन्ना हूँ। अन्ना के आन्दोलन के बाद अब बारी थी केजरीवाल की, अन्ना हजारे से खुद को अलग करने के बाद केजरीवाल राजनीति में कूद पड़े। चुनाव प्रचार में विभिन्न तरीकों से पार्टी का प्रचार किया जिसमें सबसे महत्वपूर्ण तरीका था टोपी से प्रचार का, ये तरीका रंग भी लाया और केजरीवाल मुख्यमंत्री भी बने। पर वक्त के साथ साथ ये टोपी भी बदलती रही, सबसे पहले टोपी पे लिखा था मुझे चाहिये स्वराज, उसके बाद आया मैं हूँ आम आदमी, फिर आया मुझे चाहिये पूरी आजादी, और अन्त में आया मुझे चाहिये स्वराज। वक्त के साथ टोपियाँ बदलती रहीं पर टोपी का असर लगातार बढ़ता गया। 


यही कारण है कि देश के बड़े राजनीतिक दल टोपी पहनाने में लगे हुये हैं। चाहें कांग्रेस हो या बीजेपी सब में टोपी का क्रेज बढ़ता चला जा रहा है, यही नहीं अब तो सपा और बसपा भी इसके रंग से अछूते नहीं हैं। लोग कभी भगवा रंग की टोपी पहनते हैं कभी नीली तो कभी सफेद,अंग्रजी में कहें तो शायद टोपी पहनना एक ट्रेन्ड बन गया है हर पार्टी यही सोच रही है कि शायद यही टोपी उसे सत्ता की कुर्सी तक पहुँचा दे। 


Friday 6 December 2013

THE UNTOLD STORIES                                                                                                                                                                                                                                                                                        Today, we had screening of the documentary "the untold stories" by CNN in my college INDIAN INSTITUTE OF MASS COMMUNICATION.The documentary was based on Nirbhaya CASE that happened in Delhi on 16/12/2012 and which shook the nation. After 1 year it reminded me again the abrutality of the crime which was beyond the imagination of not only of the common man but also of the police officials. The brutality of the crime is the thing which brought the nation together during those few days after that incidence. After following the case for almost 1 year i saw the documentary of the very same case. I could not control my tears from rolling down,although 1 year has passed and even i don't know anything about her. But still i feel connected to her may be because i'm a girl i can feel empathy with her.


 In the documentary i saw her parents life their pain,their emotion,the tragic death of their beloved daughter changed their world. It seems that their life is like a burden for them, Nirbhaya was an inspiration for her two younger brothers in short they lost their everything. But there are other aspects also of this case on which we needs to focus. The family of the culprits is also going through under lots and lots of trauma,i know there is nobody to blame except the culprits. They(family) has not done anything wrong for which they are getting punished. The crux of the matter is whom should we blame for this incidence - culprits, families of culprits(because the family gave those so called etiquettes to them) , or our system(because of which they have they have not got the proper education).